मूर्तिकारिन-हिंदी कविता

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मूर्तिकारिन |

राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी|

सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं

चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख चली –
दिल्ली|

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इस लेख के भीतर व्यक्त की गई राय लेखक की व्यक्तिगत राय है और इस लेख का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है।

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