ऊख हिंदी कविता

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ऊख  |

प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब|

रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है|

बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर|

मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख|

कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़|

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इस लेख के भीतर व्यक्त की गई राय लेखक की व्यक्तिगत राय है और इस लेख का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है।

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